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कई पद्धतियों का उपयोग हो रहा है विदेशी भाषा के रूप में हिंदी को सिखाने के लिए

विश्व फलक पर हिंदी भाषा शिक्षण : प्रविधि और संभावनाएं विषय पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

यूएसए के वरिष्ठ भाषावैज्ञानिक प्रो सुरेंद्र गंभीर का सारस्वत सम्मान हुआ

उज्जैन। विक्रम विश्वविद्यालय की हिंदी अध्ययनशाला एवं पत्रकारिता और जनसंचार अध्ययनशाला द्वारा विश्व फलक पर हिंदी भाषा शिक्षण : प्रविधि और संभावनाएं विषय पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। आयोजन के मुख्य अतिथि यूएसए की यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्वेनिया एवं यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कन्सिन के पूर्व विभागाध्यक्ष वरिष्ठ भाषावैज्ञानिक प्रो सुरेंद्र गंभीर थे। अध्यक्षता प्रभारी कुलपति प्रो शैलेंद्र कुमार शर्मा ने की एवं विशिष्ट अतिथि कुलसचिव डॉ प्रशांत पुराणिक, प्रो गीता नायक, डॉ जगदीश चंद्र शर्मा, डॉ डी डी बेदिया, डॉ रमण सोलंकी थे। इस अवसर पर हिंदी भाषा एवं साहित्य के व्यापक प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए वरिष्ठ भाषाविद प्रो सुरेंद्र गंभीर को अतिथियों ने शॉल, श्रीफल एवं साहित्य भेंट कर उनका सारस्वत सम्मान किया।

संगोष्ठी को संबोधित करते हुए के मुख्य अतिथि यूएसए के प्रो. सुरेंद्र गंभीर ने विदेशों में हिंदी शिक्षण की विभिन्न प्रविधियों पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि भाषा सीखने के लिए वातावरण का विशेष महत्व होता है। भारत के बाहर विदेशी भाषा के रूप में हिंदी को सिखाते हुए कई पद्धतियों का उपयोग किया जा रहा है। इनमें व्याकरण और अनुवाद आधारित प्रविधि, लैंग्वेज लैब आधारित विधि, मनोवैज्ञानिक प्रविधि, संप्रेषणात्मक प्रविधि आदि प्रमुख हैं। भाषा शिक्षण में संवादात्मक प्रविधि भी महत्त्वपूर्ण होती है। हर भाषा, हर बोली नियमों से बंधी होती है। उसका अपना महत्व होता है, किंतु आज अंग्रेजी शब्दों के आक्रमण से हिंदी शिक्षण पर जो असर हो रहा है वह चिंताजनक है। भारत की युवा पीढ़ी को यह समझना होगा कि वह विदेशी भाषा सीखे, लेकिन हमें प्राथमिकता हिंदी को देनी होगी। जितनी हम हिंदी की पुस्तकें पढ़ेंगे, हमारी शब्दावली और भाषा का ज्ञान बढ़ेगा।

अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा ने कहा कि विदेशों में सौ देशों में बसे सवा तीन करोड़ भारतवंशी अनेक चुनौतियों के बावजूद हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को जीवित रखे हुए हैं। भाषा में निहित ध्वनि संकेत, विचारों और भावनाओं का संवहन करते हैं। इसलिए भाषा शिक्षण के लिए वैज्ञानिक पद्धति को अपनाना आवश्यक है। भाषा वैज्ञानिक हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को वैज्ञानिक मानते हैं, क्योंकि उनमें भ्रम की स्थिति उत्पन्न नहीं होती। हिंदी भाषा शिक्षण को विश्व पटल पर स्थापित करने के लिए जरूरी है कि विदेशी विश्वविद्यालयों की हिंदी की पाठ्य सामग्री भी वहाँ की स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप हो। प्रो सुरेंद्र गंभीर पचास वर्षों से प्रवासी भारतीय की तरह हिंदी शिक्षण के साथ उसे प्रचारित - प्रसारित करने का अद्वितीय कार्य कर रहे हैं। उनका जीवन प्रवासी भारतीयों की भाषा और संस्कृति के लिए समर्पित रहा है।

कुलसचिव प्रो. प्रशांत पुराणिक ने अपने उद्बोधन में विश्व पटल पर हिंदी प्रचार, प्रसार एवं शिक्षण विषय पर चर्चा करते हुए कहा कि आज हिंदी विश्व भर में महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी है। वह हमारे देश का गौरव है। क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हिंदी का महत्व निरंतर बढ़ रहा है। वृहत्तर भारत में ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा के माध्यम से भारत की संस्कृति का विस्तार हुआ, जो आज हिंदी के माध्यम से आगे बढ़ रहा है। यूके, रशिया, चाइना जैसे कई देशों में हिंदी का अपने विपुल साहित्य के कारण प्रचार - प्रसार निरंतर बढ़ता जा रहा है।

प्रो. गीता नायक ने अपने उद्बोधन में कहा कि भाषा और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। भाषा का समाजवैज्ञानिक अध्ययन क्षेत्र, संस्कृति, लिंग आदि के आधार पर किया जा सकता है। किसी व्यक्ति के क्षेत्र की पहचान उसके द्वारा प्रयुक्त भाषा के शब्दों को समझ कर आसानी से की जा सकती है।


कार्यक्रम में डॉ जगदीश चंद्र शर्मा, संस्कृत विभाग के अध्यक्ष डॉ डी. डी. बेदिया और पुरातिहासविद् डॉ रमण सोलंकी ने प्रो सुरेंद्र गंभीर का अभिनंदन करते हुए कहा कि वे भारत के साथ साथ विदेशों में भी हिंदी का मान बढ़ा रहे हैं। आयोजन में डॉ प्रतिष्ठा शर्मा, डॉ सुशील शर्मा, डॉ अजय शर्मा, श्रीमती हीना तिवारी आदि सहित अनेक शिक्षक, शोधकर्ता, और विद्यार्थी उपस्थित थे।

कार्यक्रम का संचालन डॉ. जगदीश चन्द्र शर्मा ने किया। आभार प्रदर्शन शोधार्थी मोहन तोमर ने किया।

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