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हर ईट है साक्षी और हर दीवार पर हैं किस्से - मेधा बाजपेई

थोड़ी देर तक हम सभी शून्य और हतप्रभ रह गये थे, अगले 2 घंटे तक हमारे दल ने किसी से कोई बात नहीं की, बात करने की स्थिति में ही नहीं थे ।

मैं बात कर रहीं हूं 'सेल्युलर जेल, अंडमान' की जो कभी ब्रिटिश उत्पीड़न का प्रतीक था और आज भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महाकाव्य को समर्पित एक राष्ट्रीय स्मारक है,जिसकी हर ईट है साक्षी और हर दीवाल पर  किस्से  हैं। एक राष्ट्रीय कार्यशाला में प्रो प्रमोद कुमार पुरोहित,प्रो सी सी त्रिपाठी और  श्रीमती वंदना त्रिपाठी  के साथ अंडमान  जाने और इस तीर्थ के दर्शन करने का अवसर मिला।

डॉ सी सी त्रिपाठी और श्रीमती वंदना त्रिपाठी के साथ लगातार स्वतंत्रता सेनानियों  और वीर सावरकर के बारे में सुनते हुए इस कालापानी कहे जाने वाली जेल को देखा।  वीर सावरकर जी ने कालापानी में महाकाव्य ' कमला' और 'गोमांतक' की रचना की थी। उनकी काल कोठरी में जाना और उनको दण्डवत प्रणाम करना ऐसा लगा की कण मात्र ही अपने अपने हिस्से की थोड़ी सी देशभक्ति अर्पित की है। गाइड ने कहा की आंखों के आंसू और समुद का पानी,  वीरों की कहानियाँ  बहुत गहरी  होती हैं और लोग दूर से ही देखना पसंद करते हैं “ “काला पानी” के रूप में प्रसिद्ध सेल्युलर जेल की स्थिति अंडमान के द्वीपों पर समुद्र से घिरी हुई है जो कैदियों के लिए एक मानसिक और शारीरिक अलगाव का प्रतीक थी। जो हृदय को झकझोर दे, आपके भावनाओं के ज्वार उमड़ा दे, रोंगटे  खड़े कर दे और विचलित करके देश भक्ति के भाव से पुनः ओतप्रोत कर दे ऐसी जगह जाना, शहीदों को नमन करना नयी पीढ़ी को अपनी विरासत हस्तांतरित करना ये बहुत आवश्यक है। जेल की संरचना और वहाँ के हालात इन बहादुर अनगिनत अनाम क्रांतिकारियों की शहादत और संघर्ष की कहानी बयान करते  हैं। विद्वानों के अनुसार, "अंडमान" शब्द का संबंध "हनुमान" से माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि संस्कृत भाषा से यह शब्द मलय भाषा में प्रवेश कर, फिर "अंडमान" के रूप में प्रचलित हो गया।

 “1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद  अंग्रेजों ने द्वीपों पर कब्ज़ा करने और स्वतंत्रता सेनानियों को  दण्ड देने के उपनिवेश के रूप में विकसित करने का फैसला  किया। ब्रिटिश  शासन ने अंडमान द्वीपसमूह को अलग-थलग द्वीप मानते हुए चुना, जहाँ से कोई भाग नहीं सकता था। इस जगह की जलवायु और विषम परिस्थितियाँ कैदियों के लिए एक और चुनौती थीं । इसका एक बड़ा कारण यह भी था की उस समय की मान्यता  थी की समुद्र पार करने से कैदियों, जो ज़्यादातर ब्राह्मण और क्षत्रिय थे, अपनी जाति खो देंगे, जो हर भारतीय के लिए बहुत कीमती थी । दुर्गम वातावरण , बर्बरता 1200 किलोमीटर का समुद्र उन्हें स्वतः प्राकृतिक जेल में डाल रखने के लिये पर्याप्त था। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 200 स्वतंत्रता सेनानियों के पहले जत्थे के अंडमान तथा निकोबार द्वीपों में 10 मार्च 1858 के आगमन के साथ बंदी उपनिवेश की शुरुआत हुई| सभी लम्बी अवधि और आजीवन कारावास की सजा पाए देशभक्त थे जो किसी कारणवश बर्मा और भारत में मृत्यु दण्ड से बच गए थे, उन्हें अंडमान के बंदी उपनिवेश में भेजा गया| इसी सजा की प्रक्रिया को और कठिन करने के लिये सेलुलर जेल का निर्माण 1896 में शुरू हुआ और 1906 में पूरा हुआ।निर्माण कार्य भी, भारतीय मजदूरों और राजनैतिक कैदियों द्वारा  कराया गया।

कितना भीषण होता है ये सोच कर काम करना की स्वयं के लिए ही जेल बनाना है।उन्हें असहनीय परिस्थितियों में काम करना पड़ता था, और कई लोग निर्माण के दौरान ही मर गए। एक विशाल तीन मंजिला संरचना, जिसका आकार स्टारफिश जैसा था, एक केंद्रीय वॉचटावर से सात पंख निकलते थे, जो अधिकांश ब्रिटिश जेलों का मानक डिजाइन था, एक ऐसी जेल जहां 698 लोगों को एकांत कारावास में रखा जा सकता था।  विनायक दामोदर सावरकर, स्वतंत्रता सेनानी, जिन्हें 1911 में 50 वर्ष की सजा काटने के लिए अंडमान भेजा गया था, ने मराठी में अपने संस्मरण लिखे, जिसमें सेलुलर जेल में एक राजनीतिक कैदी के रूप में उन्हें दी गई यातनाओं और दंडों का वर्णन किया गया था। सेल्युलर जेल में कैदियों के लिए बेहद अमानवीय हालात थे। उन्हें जंजीरों में बाँधकर रखा जाता था, और छोटी-सी कोठरी में बंद कर दिया जाता था जहाँ हवा और रोशनी का अभाव था। कैदियों को कठोर शारीरिक श्रम करने के लिए मजबूर किया जाता था, जिसमें नारियल के रेशों से तेल निकालना, लकड़ी काटना, कोल्हू चलाना और विभिन्न कार्य करना शामिल था। यदि वे काम करने में विफल होते, तो उन्हें कोड़े मारे जाते थे और फांसी दे दी जाती थी। किसी एक कोठरी में किसी कैदी को ज्यादा दिनों तक नहीं रहने दिया जाता था जिससे कोई सामुहिक योजना ना बना सकें।और पकड़े जाने पर सार्वजनिक तौर पर सजा और फांसी दी जाती थी जिससे उसका प्रभाव सब पर पड़े। किसी किसी दिन एक साथ तीन  कैदियों को फांसी दे दी जाती थी।

आज भी फांसी घर के सामने खड़े होने पर चीखें और यातना के दृश्य घूम जाते हैं।मैं बहुत देर तक किंकर्तव्यविमूढ़ सी वहां खड़ी रही ।1933 से 1938 का समय इस कालापानी वाली जेल के लिए सबसे मुश्किल का रहा, 1939 को देश वासियों के दबाव में इसे पूरी तरह खाली करना पड़ा। इस स्थिति का मानसिक और भावनात्मक असर कल्पना से परे है। एक ओर, इन सेनानियों ने देश की आजादी के लिए अपने परिवार, समाज, और अपने जीवन को दांव पर लगाया था। लेकिन दूसरी ओर, उनके संघर्ष को उनके ही देश के कुछ लोग नहीं समझ रहे थे, और वे अंग्रेजों के हाथों में कठपुतली बन गए थे। जेल में अपने साथियों को रोज़ाना मरते और टूटते हुए देखना, और फिर रॉस द्वीप से आती संगीत और आनंद की आवाजें सुनना उनके मानसिक संतुलन को गहरा आघात पहुंचाता रहा होगा। रॉस द्वीप वर्तमान में( नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वीप) अंग्रेजी हुकूमत ने “पूर्व का पेरिस” कहा था। वहाँ की भव्य इमारतें, सुंदर बगीचे, क्लब, चर्च, और अधिकारी वर्ग का विलासितापूर्ण जीवन पूरी तरह से इस बात का प्रमाण थे कि वे एक अलग, सहज और आरामदायक दुनिया में जी रहे थे। यहाँ ब्रिटिश अधिकारी अपने परिवारों के साथ रहते, पार्टियाँ करते, शराब का सेवन करते, और मनोरंजन के विभिन्न साधनों का लुत्फ उठाते थे। उनके लिए यह स्थान एक आरामगाह था, जहाँ वे अपने जीवन की हर खुशियाँ मना सकते थे। लेकिन इस सुख-सुविधा से भरे जीवन के सिर्फ दो  किलोमीटर  की दूरी पर, सेल्युलर जेल में भारतीय स्वतंत्रता सेनानी अपने देश के लिए असहनीय यातनाएँ झेल रहे थे। उन स्वतंत्रता सेनानियों के लिए सबसे बड़ी यातना शायद यह थी कि उन्होंने देश को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए संघर्ष किया, लेकिन देश के कुछ हिस्सों में लोग अंग्रेजों की सेवा में लगे थे, और उनके द्वारा दी जाने वाली यातनाओं में भी भागीदार थे। यह स्थिति उनकी आत्मा को झकझोरने वाली रही होगी। ।सेल्युलर जेल के स्वतंत्रता सेनानी मानसिक और शारीरिक रूप से जितने भी पीड़ित रहे हों, उन्होंने कभी अपने उद्देश्य से मुंह नहीं मोड़ा। उनके अदम्य साहस और संघर्ष की कहानी आज भी हमारे देश की स्वतंत्रता की नींव है। नमन हे इन शहीदों को।

(लेखक, मनोवैज्ञानिक सलाहकार एवं शिक्षाविद हैं।)

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