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लोक मान्य विक्रम संवत् ही राष्ट्रीय पंचांग हो - अजय बोकिल, वरिष्ठ लेखक

आजादी के बाद से ही यह बहस का विषय रहा है कि स्वतंत्र भारत का राष्ट्रीय पंचांग वो क्यों नहीं है, जो देश के अधिकांश हिस्से में लोकमान्य है। अर्थात् लोकमान्यता उस विक्रम संवत् की है, जिसे महाकाल की नगरी उज्जयिनी के प्रतापी हिंदू राजा विक्रमादित्य ने विदेशी आक्रांत शकों को हराने की स्मृति को शाश्वत करने के ई.पू. 57 में चलाया था। लेकिन भारत का आधिकारिक राष्ट्रीय पंचांग वो शक संवत् है, जो शक राजा रूद्रदमन ने 58 ईस्वी में भारतीयों पर विजय के उपलक्ष्य में चलाया जाता है। कहा जाता है कि शक संवत् के पक्ष में विद्वानों का पलडा सिर्फ इसलिए झुका, क्योंकि ऐतिहासिक प्रमाण शक संवत् के पक्ष में ज्यादा थे। संभव है कि संवतारंभ की तिथि के हिसाब से शक संवत् के पक्ष में ज्यादा प्रमाण हो, लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि प्रामाणिक होने के दावे के बाद भी शक संवत् जन पंचांग का हिस्सा क्यों नहीं बन पाया? आज भी हिंदुओं के सभी तीज त्यौहार, संस्कार व ज्योतिष गणनाएँ ज्यादातर विक्रम संवत् के हिसाब से ही होती हैं न कि शक संवत् के हिसाब से। इसका भावार्थ यही है कि आज भी लोक मान्यता विक्रम संवत् की ज्यादा है बजाए शक संवत् की। ऐसे में भारत सरकार को राष्ट्रीय पंचांग के रूप में विक्रम संवत् को स्वीकार करने की दिशा में ठोस अकादमिक प्रयास करने चाहिए ताकि इस संवत् के रूप में हिंदू संस्कृति के जयघोष के साथ-साथ सम्राट विक्रमादित्य की न्यायप्रियता के आग्रह की भी पुनर्प्रतिष्ठा हो। इसे और प्रामाणिक आधार देने के लिए नए ऐतिहासिक शोध और विद्वत चर्चा की मदद भी ली जा सकती है। 

शोध पत्रिका ‘अधिगम’ में प्रकाशित प्राचीन इतिहास के विशेषज्ञ डाॅ. शिवकांत‍ त्रिपाठी के अनुसार विक्रम संवत् भारत के अनेक संवतों में सर्वाधिक जीवनी शक्ति के रूप में उपस्थित रहा और आज भी प्रयोग में है। समूचे उत्तर भारत में तो यह जन्म से लेकर अंत तक प्रयुक्त होता है। डाॅ. प्रशांत पुराणिक के अनुसार चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य द्वारा प्रवर्तित विक्रम संवत् ही हमारा राष्ट्रीय संवत् है। इतिहासकारों का मानना है कि विक्रमादित्य ने शकों को हराकर भारत को विदेशी शासकों से मुक्ति दिलाई थी। इसकी शुरूआत 57 ईसापूर्व हुई। यह संवत् चंद्रमा पर आधारित है। अत: चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से प्रारंभ विक्रम संवत् को ही हिंदू नव वर्ष का प्रारंभ भी कहा जाता है। यह संवत् बंगाल को छोड़कर पूरे भारत में प्रचलित है। डाॅ. पुराणिक के अनुसार आरम्भिक शिलालेखों में इसका उल्लेख कृत संवत् और मालव संवत् के रूप में भी हुआ है। मोटे तौर पर मान्यता यही है कि सम्राट विक्रमादित्य ने ईसा पूर्व 57 में इसका प्रचलन शुरू कराया था। कुछ लोग ईसवी सन 78 और कुछ लोग ईसवी सन 544 से भी इसका प्रारम्भ मानते हैं। फारसी ग्रंथ 'कलितौ दिमनः' में पंचतंत्र का एक पद्य 'शशिदिवाकरयोर्ग्रहपीडनम्' का भाव उद्धृत है। कुछ विद्वान 'कृत संवत्' को 'विक्रम संवत्' का पूर्ववर्ती मानते हैं। अर्थात् विक्रम संवत् को पहले कृत संवत् के नाम से जाना जाता था। लेकिन 'कृत' शब्द के प्रयोग की सन्तोषजनक व्याख्या नहीं की जा सकी है। कुछ शिलालेखों में मालवगण का संवत् उल्लिखित है, जैसे-नरवर्मा का मंदसौर शिलालेख। इसमें 'कृत' एवं 'मालव' संवत् एक ही कहे गए हैं। हो सकता है कि कृत संवत् ही मालवा में मालव संवत् के नाम से जाना गया हो। 

राजस्थान के बरनाला में मिले एक‍ प्राचीन में ‘विक्रम संवत्’ का उल्लेख है। भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग पर्व के अनुसार उज्जैन के परमार वंश के राजा गंधर्वसेन के दूसरे पुत्र का नाम विक्रमादित्य था, जिनका जन्म 102 ई.पू. में हुआ था तथा देहांत ईसवी सन् 15 में हुआ। विक्रम संवत् का एक महत्वपूर्ण उल्लेख गुजरात के काठियावाड़ के ओखामंडल के पूर्व राजा जयकदेव के शिलालेख में मिलता है। इस शिलालेख के स्थापना वर्ष में विक्रम संवत् 794 का उल्लेख है, जो ईस्वी सन् के हिसाब से वर्ष 737 होता है। भारत में मुस्लिम शासकों के सत्ता पर काबिज होने तक देश में मुख्य रूप से विक्रम और शक संवत् ही प्रचलन में थे। बौद्‍ध साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है।  नेपाल के पूर्व राणा राजवंश ने 1901 में विक्रम संवत् को ही नेपाल के अधिकृत हिंदू कैलेंडर के रूप में मान्य किया था।  

वर्तमान में भारत में ग्रिगोरियन कैलेंडर ( जोकि अंतरराष्ट्रीय रूप से मान्य है) के अलावा शक संवत् और विक्रम संवत्। इनमें से भारतीय पंचांग के रूप में केवल शक संवत् को ही मान्यता दी गई है। इसके पीछे तर्क यही है कि इसके प्रारंभ की तिथि और इतिहास ज्यादा प्रामाणिक है। राष्ट्रवादी इतिहासकारों  का मानना है कि भारत सरकार को शक संवत् के बजाय केवल विक्रम संवत् को ही आधिकारिक रूप से मान्य करना चाहिए। वैसे हिंदू धर्म में कई पंचांग (कैलेंडर) प्रचलित हैं, लेकिन जो सर्वाधिक मान्य है, वह विक्रम और शक संवत् ही हैं। 

वैसे भारत में विक्रमादित्य नाम से और भी सम्राट हुए हैं, क्योंकि विक्रमादित्य एक उपाधि थी। इतिहासकार राजबली पांडेय, कैलाशचंद जैन आदि ने विक्रमादित्य को उज्जैन स्थित मालवा का सम्राट माना है, जिसने‍ सिन्ध से घुसकर मालवा पर हमला करने वाले शकों को रोका। इस पराक्रमी विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त विक्रमादित्य नहीं) का उल्लेख कई पारंपरिक कथा साहित्य में ‍मिलता है, जिसमें ‘बेताल पच्चीसी’ और 'सिंहासन बत्तीसी’ अहम है। 12वीं सदी में कल्हण द्वारा लिखी गई ‘राजतरंगिणी’ में उल्लेख है कि उज्जैन के राजा हर्ष विक्रमादित्य ने शकों को पराजित किया था। इसी विक्रमादित्य ने अपने मित्र मातृगुप्त को उस समय कश्मीर का शासक नियुक्त किया था।    

विक्रम संवत् का प्रारंभ ईसा से 57 वर्ष पूर्व से माना जाता है। भारत के अलावा यह पंचांग नेपाल में भी मान्य है। बल्कि नेपाल का तो यह राष्ट्रीय पंचांग ही है। ऐसे में प्रश्न उठता है ‍कि जब नेपाल में राष्ट्रीय पंचांग माना गया है तो भारत में इसे राष्ट्रीय पंचांग स्वीकार करने में कौन सी बाधा है? विक्रम संवत् का आरंभ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से और उत्तर भारत में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। माना जाता है कि वर्ष में 12 माह और 7 दिन का एक सप्ताह मान्य करने का प्रारंभ विक्रम संवत् से ही हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर आधारिक है। ये बारह राशियाँ ही 12 सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन संक्रान्ति होती है। पूर्णिमा के दिन, चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा है, इसीलिए प्रत्येक 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है। ‍जिसे ‘अधिक मास’ कहते हैं। जिस दिन नव संवत् का आरम्भ होता है, उस दिन के वार के अनुसार वर्ष के राजा का निर्धारण होता है। उदाहरण के लिए 18 मार्च को विक्रम संवत् 2074 का प्रथम दिन था। 

शुभोमय दास के अनुसार भारत में आजादी के बाद तक 30 अलग-अलग हिंदू पंचांग प्रचलन में थे। ये सभी ज्योतिषीय गणनाओं और स्थानीय कालनिर्णायकों के हिसाब से बनाए जाते थे। ये कैलेंडर हिंदुओं के अलावा बौद्धों, जैनों और सिखों में भी मान्य थे। जबकि सरकारी कामकाज ग्रिगोरियन कैलेंडर के हिसाब से होता था। 1957 में भारत सरकार ने एक ‘पंचाग सुधार समिति’ गठित की। जिसने चांद्रसूर्य पंचांग, जिसमें हर चौथे वर्ष अधिक मास जोड़ा जाता है, को आधिकारिक रूप से मान्य किया गया। समिति की सिफारिशें मानते हुए शक संवत् चैत्र प्रतिपदा 1879 अर्थात 22 मार्च 1879 से इसका प्रारंभ माना गया। इसे ही भारत का राष्ट्रीय पंचांग भी स्वीकृत किया गया। वर्तमान शक संवत् 1945 चल रहा है। लेकिन शक संवत् की जगह विक्रम संवत् के वरण का भावनात्मक महत्व भी है। यह हमें अपने राष्ट्रीय गौरव और हिंदू संस्कृति की महानता का बोध भी कराता है। ऐसी संस्कृति जो न केवल कालगणना में विश्व में सबसे प्राचीन रही है, बल्कि काल निर्धारण के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना और न्यायप्रियता का आग्रह भी लिए हुए है।

✍️ अजय बोकिल, वरिष्ठ लेखक

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